ग्रामीण क्षेत्रों में ऑनलाइन क्लास के लोचे - नवाचारियो की लक्ष्मण रेखा बता रखें हैं - सुधांशु श्रीवास्तव
हम तकनीकी में अति पिछड़े देशों के क्रम में आते हैं और अगर बात दूर-दराज़ और रिमोट लोकेशंस पर स्थित ग्रामीण भारत की हो तो वहाँ की स्थिति आज भी तकनीकी रूप से अत्यंत पिछड़ी दशा में ही है।स्मार्ट फोन्स और बटन फोन्स का अनुपात 1 और 20 का है।फोन की चार्जिंग की समस्या भी है क्योंकि इलेक्ट्रिसिटी लाइन का होना और उसकी प्रॉपर उपलब्धता , दो अलग-अलग बाते हैं।यदि किसी के पास कॉन्टैक्ट का नम्बर हो भी तो पूछे जाने पर अक्सर ऐसे जवाब मिलते हैं,"हम नही जंतिन, आप फोनेहे से निकार लेव।"
कोरोना सम्बन्धी वैश्विक त्रासदी के के चलते सम्पूर्ण विश्व हाई-एलर्ट मॉड पर है और अब तक के सबसे कारगर उपाय के रूप में 'सोशल डिस्टेंसिंग' ही सामने है।प्रत्येक देश अपने 'मानव-संसाधन' को इस संक्रमण से बचाये रखने के लिए कटिबद्ध है और इसी कटिबद्धता के चलते वर्तमान लॉक डाउन प्रभावी रूप में हमारे सामने है।

प्राथमिक विद्यालय की पहुंच देश के प्रत्येक गाँव तक है और साथ ही इन विद्यालयों में दूर-दराज़ से चल कर शिक्षक गण आते हैं और बच्चों को पढ़ाने,विभागीय प्रपत्र बनाने एवं शासन-प्रशासन द्वारा दिये गए अन्य महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।विद्यालय तक आवागमन के क्रम में विद्यालयीय शिक्षक गण पब्लिक ट्रांसपोर्ट और निज़ी वाहनों का प्रयोग करते हैं और राशन/सब्जी आदि खरीदने सहित विभिन्न प्रकार से आम जन मानस के संपर्क में भी आते हैं।इस तरह से वो वर्तमान कोरोना संक्रमण के सरल वाहक भी हो सकते हैं और उनके द्वारा यह संक्रमण विद्यालय से सम्बंधित गाँवों तक भी आसानी से पहुंच सकता है।

प्रदेशीय सरकारों ने इस काम्प्लेक्स श्रृंखला को ससमय संज्ञान में लिया और त्वरित प्रभाव से विद्यालयों का लॉक डाउन सबसे पहले किया जाना सुनिश्चित किया।

रुरल इंडिया में ऑनलाइन क्लास की जोरदार कोशिश का वेलकम किया जाना चाहिए, पर कुछ फ़ैक्ट को इग्नोर कर आगे नही बढ़ा नही जा सकता ।

यदि पिछले सत्र/सत्रों की भाँति सब कुछ सामान्य चल रहा होता तो वर्तमान अप्रैल माह नामांकन माह के रूप में मनाया जा रहा होता।गाँव स्तर पर ज़मीनी रूप में यह गेहूँ कटाई का भी समय होता है और मौसम का संक्रमण काल भी।ग्रामीणों को कटाई के इस काम मे परिवार सहित अपने खेतों में लगना पड़ता है क्योंकि आँधी-तूफान,बारिश ओले आदि के साथ साथ सूखे हुए खेतों में आग लगने की संभावना भी बहुतायत में होती है।इसलिए नामांकन का यह माह लुका-छिपी के खेल जैसा हो जाता है।बच्चों के घर जाने पर अक्सर ताला लगा मिलता है और बच्चे भी अपने परिवार के साथ खेतों में ही समायोजित होते हैं।इसलिए नामांकन का प्रतिशत इस चालू माह में बहुत कम ही होता है।ऐसे समय मे विद्यालय स्तर पर पढ़ाई का माहौल बनाना अत्यंत दुष्कर कार्य है और यही ज़मीनी हक़ीक़त भी।

FACT REPORT - The major trouble for online study in rural india

बच्चों के पिता और घर के ज़्यादातर पुरुष औद्योगिक जिलों और प्रदेशों में असंगठित कामगार के तौर पर काम कर रहे होते हैं और उनके द्वारा कमाया गया पैसा परिवार को कृषि कार्यों से अलग और अतिरिक्त अर्थ देने वाला होता है।वर्तमान समय मे उनका यह रोजगार भी छिना हुआ है और समस्त आर्थिक बोझ कृषि सम्बन्धी कार्यों पर ही केंद्रित हो गया है।

ज्यादातर ग्रामीण,स्मार्ट फ़ोन का प्रयोग नही करते या फिर करते भी हैं तो गाना सुनने,वीडियो और फ़िल्म आदि देखने मे।यद्यपि,ज्यादा चलन में वही पुराने बटन वाले फोन्स होते हैं जिनमे सैमसंग,नोकिया के साथ ही ऊंची आवाज़ में बजने वाले चाइनीज़ मॉडल्स की बहुतायत मिलेगी।अक्सर करके इन फोन्स में रबरबैंड के माध्यम से बैटरी को बाकी फोन के साथ अटैच रखा जाता है।गाँव स्तर पर ये सारे दृश्य अति सुलभ हैं। अब आता हूँ इस आर्टीकिल के वास्तविक उद्देश्य में।

अगर यह ज़मीन पर वर्किंग है और इसकी उपलब्धि आने वाले समय मे दिखाई देती है तब तो मैं दंडवत प्रणाम करता हूँ और ख़ुद भी उस विधा को सीखने के प्रति प्रस्तुत हूँ जिसमे बिना संसाधन और जागृति के ऐसा हो पाया है पर अगर यह ज़मीन पर नही है तो यह हास्यास्पद है और आने वाले समय मे यह दिखावा, वास्तविकता के धरातल पर उतारने का नैतिक दबाव भी बनाएगा । ख़ैर तैयार रहिए क्योंकि इन नवाचारियों ने ही आपसे आपके स्मार्टफोन का एक्सेस छीन कर औरों के हाथ मे दे दिया है।
फ़िलहाल परिषद में कहीं भी कोई ऑनलाइन क्लास जैसा भी कुछ अस्तित्व में नही है..... यह हवा में टाँगी गई तस्वीर है बस....- सुधांशु श्रीवास्तव

उपर्युक्त परिस्थितियाँ ,एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय में अलग हो सकती हैं लेकिन इस कृषि प्रधान देश मे यह अंतर आकाश-पाताल का नही हो सकता।ग्रामीण परिवेश आज भी तकनीकी अवेयरनेस में बहुत पीछे है।जब कभी कोई शिक्षक अपने स्मार्टफोन या लैपटॉप में बच्चों को कोई कार्टून मूवी या कोई शैक्षिक कार्यक्रम दिखाता है तो बच्चे उत्सुकता और शांति से उसे देखते हैं।कई बार यह उनके उस इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के प्रति आश्चर्य के कारण भी होता है।

वर्तमान समय मे कुछ नवाचारी शिक्षकों ने परिस्थितिजन्य नवाचार की नींव रखी है,यद्यपि ज़्यादातर मामलों में यह नींव हवा में ही रख दी गई है क्योंकि उपर्युक्त वर्णित परिस्थितियाँ कमोबेश अधिसंख्यक विद्यालयों और गाँवों में उपस्थित मिलेंगी।

आज दक्षिण कोरिया से सम्बंधित एक ख़बर का प्रसारण बीबीसी इंडिया चैनल पर देखा।तकनीकी रूप से समृद्ध दक्षिण कोरिया में भी कोरोना महामारी के चलते स्कूल-कॉलेज बन्द हैं और नवप्रवेशी बच्चों के सम्मुख भी न सीख पाने का शुरुआती ख़तरा है।ऐसे में आधारीय शिक्षा के लिए ऑनलाइन क्लासेज़ को शुरू करने का प्रथम प्रयोग वहाँ भी किया जा रहा है।संसाधनों से सुसज्जित क्लासरूम में लैपटॉप के सामने बैठी शिक्षिका के चेहरे पर मास्क है और स्क्रीन पर दो बच्चे वीडियो कांफ्रेंसिंग में हैं।साक्षात्कार के दौरान शिक्षिका बताती हैं कि यह अनुभव क्लासरूम जैसा बिल्कुल भी नही है फिर भले ही तकनीकी कितनी ही उन्नत क्यों न हो।वीडियो कांफ्रेंस में भी सभी बच्चों का लाभ बराबर नही हो पायेगा और अपेक्षाकृत कमज़ोर बच्चा दिन पर दिन और कमज़ोर होता जाएगा।

हम तकनीकी में अति पिछड़े देशों के क्रम में आते हैं और अगर बात दूर-दराज़ और रिमोट लोकेशंस पर स्थित ग्रामीण भारत की हो तो वहाँ की स्थिति आज भी तकनीकी रूप से अत्यंत पिछड़ी दशा में ही है।स्मार्ट फोन्स और बटन फोन्स का अनुपात 1 और 20 का है।फोन की चार्जिंग की समस्या भी है क्योंकि इलेक्ट्रिसिटी लाइन का होना और उसकी प्रॉपर उपलब्धता , दो अलग-अलग बाते हैं।यदि किसी के पास कॉन्टैक्ट का नम्बर हो भी तो पूछे जाने पर अक्सर ऐसे जवाब मिलते हैं,"हम नही जंतिन, आप फोनेहे से निकार लेव।"

नवाचारी शिक्षकों ने कई बार ऐसे नवाचारों का सामूहिक और व्यक्तिगत हवाला, बजरिये सोशल मीडिया, दिया है जिसका ज़मीनी अस्तित्व भले न हो लेकिन वह नवाचार लोगों के साथ साथ शासन-प्रशासन की नज़रों में आ जाता है।यद्यपि शासन के उच्चतम पायदान से लेकर जिले स्तर के अधिकारियों तक को ज़मीनी सच्चाई का पता होता है लेकिन फिर भी उनका प्रयास यह होता है कि अगर इस स्वकथित और स्वसिद्ध नवाचार का कुछ भी प्रतिशत ज़मीन पर उतरा तो भी वह एक उपलब्धि ही होगा और अगर ऐसा न भी हुआ तो भी रिमेनिंग शिक्षक वर्ग पर एक नैतिक दबाव तो बनेगा ही।माने भूत न सही तो लंगोट ही सही। 

यद्यपि इंटरनेट और यू-ट्यूब में प्राथमिक शिक्षा से सम्बंधित ढेरों एनीमेटेड और हाइक्वालिटी वीडियो, विषयवार देखने को मिल जाते हैं।अक्सर ऐसे कंटेंट उपलब्ध कराए जाने पर बच्चा उस एनीमेशन के सम्मोहन में खो जाता है न कि विषयवस्तु में।व्हाट्सएप आदि माध्यम से यदि कोई कंटेंट उपलब्ध भी कराया जाए तो उसकी पहुंच का दायरा कितना होगा?और क्या ग्रामीण परिवेश का गार्ज़ीयन ,बच्चों की पढ़ाई को लेकर इतना चिंतित और जाग्रत है कि यदि उसके पास स्मार्टफोन हो भी तो वह अपने बच्चे को इस हेतु समय से दे ही देगा।यदि ऐसा है तो फिर बेसिक शिक्षा से सम्बंधित शिक्षकों द्वारा इस आशय की शिकायत कि बच्चों और उनकी पढ़ाई के प्रति गार्जियन जागरूक नही है,बिल्कुल ही ग़लत होनी चाहिए।

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कई बार स्वकथित नवाचारी शिक्षक अपने स्वसिद्ध नवाचार के माध्यम से ख़ुद को तो अलग पंक्ति में खड़ा कर लेते हैं लेकिन उनके पीछे बचा हुआ शिक्षक वर्ग हतप्रभ भी हो जाता है और हताश भी।कई बार तो उन्हें लगता है कि जैसे वो कुछ करते ही नही?विगत शैक्षिक सत्र में जब एक प्राइवेट संस्था द्वारा विद्यालयों में शैक्षिक संवर्धन के प्रयास किये गए तो उसका सबसे कठिन पक्ष तब सामने आया जब शिक्षकों द्वारा उक्त संवर्धन कार्यक्रम से सम्बंधित डाटा को एक एप्लीकेशन के माध्यम से सम्बंधित साइट में अपलोड किया जाना था।कितने ही पुराने शिक्षकों ने तकनीकी रूप से अक्षम होने की और कितनों ने ही स्मार्टफोन्स न होने की बात कह दी थी।

वर्तमान 'कोरोना आपदा' के दौरान विद्यालयों की तालाबंदी का यह समय और गेहूं कटाई का समय, बाईचान्स क्लैश कर रहा है।बच्चों के वो अभिभावक जो बाहरी जिलों या प्रदेशों में कामगार के तौर पर काम कर रहे थे, उनकी विकट परिस्थितियों में घर वापसी भी हो चुकी है,वैश्विक बंदी की इस स्थिति में फोन्स की ऑनलाइन और ऑफलाइन बिक्री भी बन्द है, लोगों के सम्मुख प्रतिदिन सबसे बड़ा प्रश्न 'कोरोना आपदा' सम्बन्धी अपडेट और जीवन का है।जगह जगह पर वालंटियर्स और सरकार राहत सामग्री उपलब्ध करा रही है क्योंकि मानव-संसाधन की रक्षा ही प्राथमिक विषय है। जहाँ एक तरफ़ पुराने शैक्षिक सत्र का समापन घोषित हो चुका है वहीं नई कक्षा के प्रवेशी छात्रों के आस-पास पढ़ाई जैसा कोई माहौल भी नही है।नए कक्षा में नवप्रवेशियों के पास न तो नई किताबें हैं और न ही स्टेशनरी सम्बन्धी अन्य ज़रूरत के सामान ही।दुकानों की बंदी के चलते यह सामान सर्वथा अनुपलब्ध है।

परिषदीय विद्यालयों के नवाचारियों द्वारा दिन पर दिन ऑनलाइन क्लासेज़ चलाये जाने सम्बन्धी अपडेट्स विभिन्न सोशल साइट्स के माध्यम से लगातार प्राप्त हो रहे हैं।यद्यपि मैं स्तब्ध हूँ और उनके ऐसे प्रयासों को प्रणाम भी करता हूँ जिनमे यह बताया गया है कि व्हाट्सएप ग्रुप बनाकर वो ऐसा कर रहे हैं किंतु पीछे एक प्रश्न भी उभरता आ रहा है कि उपर्युक्त वर्णित परिस्थितियों के आलोक में क्या वास्तव में ऐसा हो ही रहा है या फिर यह फिर से हवा में टाँगी गई तस्वीर मात्र ही है?

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अगर यह ज़मीन पर वर्किंग है और इसकी उपलब्धि आने वाले समय मे दिखाई देती है तब तो मैं दंडवत प्रणाम करता हूँ और ख़ुद भी उस विधा को सीखने के प्रति प्रस्तुत हूँ जिसमे बिना संसाधन और जागृति के ऐसा हो पाया है पर अगर यह ज़मीन पर नही है तो यह हास्यास्पद है और आने वाले समय मे यह दिखावा, वास्तविकता के धरातल पर उतारने का नैतिक दबाव भी बनाएगा । ख़ैर तैयार रहिए क्योंकि इन नवाचारियों ने ही आपसे आपके स्मार्टफोन का एक्सेस छीन कर औरों के हाथ मे दे दिया है।
सुधांशू श्रीवास्तव